उत्सव ऐसा विशिष्ट अवसर है जो मनुष्य को परम आनंद और उत्कर्ष की ओर ले जाता है। यह न केवल सामाजिक और सांस्कृतिक मिलन का प्रतीक है, बल्कि जीवन की ग्रंथियों के खुलने की अनुभूति और उन्हें भावनाओं को स्वरूप देने का माध्यम भी है। भारतीय वेदों में उत्सव को दिव्यता से जुड़ा हुआ माना गया है। ऋग्वेद की एक ऋचा कहती है:
"उत्सं स्पृणीत् सविता भवत्वस्य ह्रीं देवी धिष्ण्याम्, विश्वायुः सोमोपमः।"
(ऋग्वेद 10.90.16)
अर्थात, "उत्सव वह है जो जीवन में ऊर्जा और आनंद का संचार करता है, उसे सविता देव के आशीर्वाद से संचित किया जाता है और यह विश्व को परम सत्य और आयु की ओर अग्रसर करता है।"
उत्सव केवल बाहरी खुशियों का नहीं, बल्कि आंतरिक आत्मानुभूति का क्षण होता है, जब व्यक्ति स्वयं से ऊपर उठकर समाज और प्रकृति से एकात्म होता है। साहित्य में भी उत्सव को मानवीय भावनाओं और संवेदनाओं की उचाईयों का उत्सव कहा गया है। जैसे, कालिदास के "ऋतुसंहार" में विभिन्न ऋतुओं के उत्सव का उल्लेख है, जो केवल मौसमों का वर्णन नहीं है, बल्कि प्रकृति और मानव के बीच गहन संबंध को भी उजागर करता है।
उत्सव की सुंदरता इस बात में निहित है कि वह व्यक्ति को अपनी सीमाओं से बाहर निकालकर संपूर्ण ब्रह्मांड से जोड़ता है। उत्सव केवल जीवन के शुभ अवसरों का ही नहीं, बल्कि नीरस में रस की विजय का भी प्रतीक है। उत्सव समाज को नवीकृत करता है और जीवन में नई प्रेरणा प्रदान करता है।
उत्सव वे अनमोल क्षण जिसमें हर्ष, आनंद, प्रेम और सामूहिकता की भावना से हम जीवन को जीवन्त बनाते हैं ।